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धान की 16 हजार से ज्यादा किस्मों का डीएनए फिंगरप्रिंट तैयार, ‘छत्तीसगढ़’

धान को लेकर छत्तीसगढ़ में पिछले 50 साल में जो काम हुआ और किस्में तैयार की गईं, उनमें से 16700 किस्मों का डीएनए फिंगरप्रिंट तैयार कर कोडिंग कर दी गई है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार प्रदेश में यह पहला और सबसे बड़ा डीएनए फिंगरप्रिंट संग्रह होगा। इसके दो फायदे होंगे। पहला, जर्मप्लाज्म चोरी भी हुए तो इतनी किस्मों रिकाॅर्ड एक क्लिक पर कृषि विवि के जर्मप्लाज्म सेंटर में रहेगा। दूसरा, किसान किस्मों की कोडिंग के जरिए क्वालिटी पता कर बुआई कर सकेगा।

डेटा से किसानों को संबंधित धान की किस्म का स्वभाव, दानों का वजन, मोटाई और ज्यादा पैदावार के लिए अनुकूल परिस्थितियों का पूरा ब्योरा मिल जाएगा। सबसे खास बात ये है कि पहली बार छत्तीसगढ़ की मशहूर बादशाह भोग चावल की 18 किस्मों का डीएनए फिंगरप्रिंट सुरक्षित किया गया है। छत्तीसगढ़ के वैज्ञानिक अब तक धान की 23250 किस्मों का पता लगा चुके हैं। यह काम आधी सदी से चल रहा है, लेकिन अब हर किस्म को सुरक्षित रखने का मामला पुख्ता हो रहा है।

इंदिरा गांधी कृषि विवि के रिसर्च सेंटर और बायोटेक्नॉलॉजी सेंटर में उपलब्ध वैरायटियों व डीएनए फिंगरप्रिंट के स्टोरेज की मौके पर पड़ताल की। वहां धान की सभी किस्मों के जर्मप्लाज्म 6 से 8 डिग्री पर रखे गए हैं। जिनका फिंगरप्रिंट तैयार है, उनके खाने में किस्म का नाम और कोड लिखा हुआ है।

इसे स्कैन करते ही उस किस्म की सारी हिस्ट्री सामने आ रही है। जैसे, धान में बादशाह भोग की 18 वैरायटी की कोडिंग कर दी गई है। हर कोड को स्कैन करने पर इसी क्वालिटी की अलग-अलग विशेषताएं सामने आ रही हैं। कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल के नेतृत्व में वैज्ञानिक डॉ. सतीश वरूलकर की की टीम बची हुई 6550 वैरायटियों का भी डीएनए फिंगर प्रिंट बनाया जा रहा है। सभी किस्मों को डेढ़ दर्जन वर्गों में बांटा गया है। इनमें महंगा चावल, मेडिशनल, खूशबुदार और लंबे या छोटे दाने जैसे वर्ग हैं। 400 वैरायटियां डायवर्सिफाइड हैं। 40 किस्मों की जिनोम सिक्वेंसिंग भी कर ली गई है। कई किस्में लैब के सामने ही खेतों में लगी हैं।

8 हजार किस्मों की हर तीन साल में बुवाई, फिर प्रिजर्व
छत्तीसगढ़ में धान की सभी किस्मों को संग्रहण करने वाले वैज्ञानिकों डा. आरके रिछारिया से लेकर डॉ. ए. श्रीवास्तव, डॉ. पी. श्रीवास्तव, डॉ. आरके साहू, डॉ. बीएन साहू और डॉ. आरसी चौधरी ने इन्हें सुरक्षित रखने में खासी मेहनत की है। हर तीन माह में रजिस्टर में इनके गुण दर्ज किए जाते हैं। कंप्यूटराइजेशन ने यह काम आसान कर दिया है।

इनमें से लगभग 8 हजार किस्मों को हर तीन साल में लैब के सामने रोटेशन में बोया जाता है। फसल के बाद इनके बीज-पौधों का अध्ययन होता है कि नेचर बदला तो नहीं है। इन किस्मों को बायोडायवर्सिटी हब कहे जाने वाले बस्तर, दंडकारण्य, ओडिशा के कुछ हिस्से और असम में भी संग्रहित किया गया है।

इसके ये हैं फायदे

वैरायटी-जर्मप्लाज्म नष्ट नहीं होंगे
इनके उपयोग पर रायल्टी दी जाएगी
ये किस्में छत्तीसगढ़ की पहचान बनीं
किसानों के लिए उपयोग आसान

akhilesh

Chief Reporter

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